Bachpan ki sunhari yaadein | हमारा आपका बचपन | जब हम बच्चे थे

माँ के लिये तो बच्‍चा कान्‍हा ही होता है

 हमारे अपने बचपने की सुनहरी यादाें (Bachpan ki sunhari yaadein) की कुछ बातें –   माँ की कोख में पलकर, दूध पीकर बच्‍चा शनै: शनै: बढ़ना शुरू करता  है । हाथ और लात चलाता हुआ, कभी हंसता तो कभी रोता । कभी हंसाता तो कभी रुला तक देता । अपनी उन अदाओं से जो बच्‍चे के माँ के पेट में रहते हुए भी 9 माह तक किया रहता था  । माँ उसे बडे लाड़ प्‍यार से पालती, उसे देखती , हर पल उसे तकती रहती । सोचती रहती, कि कब मेरा लल्‍ला बड़ा हो जाएगा । मेरा कान्‍हा,मेरा दुलारा ऐसे  उस बच्‍चे पर अपनी ममता की छाप छोड़ती जाती है । उसके आंचल में उसे छुपा-छुपा कर, उसे बाहुबली स्‍वरुप ऊर्जा व बल प्रदान करती है । सोये जब बच्‍चा पलना में, तो जागे माँ देख देख  उसे अंगना में । सोये खुद गीले में, सुलाए सूखे में खुद उसे । ऐसी ममता मयी माँ का साया बच्‍चे पर सदैव बना रहे ।

हमारा पूरा संसार ही “वसुधैव कुटुंबकम्”

यहाँ हर माँ को प्रणाम करता है । उनके चरण छूकर नमन करता है और कहता है , प्रार्थना करता है कि हर माँ का हर बच्‍चा कान्‍हा ही बने । इतने कान्‍हा हो जाएं कि फिर कोई दुर्योधन ,कोई दुसासन पैदा ही न हो पाएं । कहीं कोई अघासुर ,न बकासुर न ही भस्‍मासुर जन्‍म लेवें । माँ देवकी और पिता वासुदेव ही मिलें । हर उस बच्‍चे को जो समाज में कान्‍हा बनकर आने वाला है ।

   “वसुधैव कुटुंबकम् हमारा पूरा संसार कान्‍हा की उस आवाज से गुंजन  हो उठे । जिसमें राक्षसों का डेरा ही साफ हो जाए । कान्‍हा की बांसुरी की मधुर संगम मयी आवाज में पूरा संसार मंत्र मुग्‍ध हो  जाए । घुटैयां – घुटैयां, चलते- चलते बच्‍चा अपने पैरों के बल चलने लगे और गाय के दूध की मांग करे । ताकि घर- घर गौशाला का निर्माण हो जाए । दूध, दही, माखन, घी इतना हो जाए कि तंबाखू ,बिड़ी , सिगरेट और शराब की जरूरत ही न पड़े । बच्‍चों के लिए खोवे से इतनी मिठाईयाँ बने कि दुराचारियों को गौवध करने की सोचना भी न पड़े । अत्‍याचारी, दुराचारी, भ्रष्‍टाचारी इत्‍यादि का वध करने के लिए भगवान का जन्‍म हो जाए ।

 आयु 6 वर्ष से 9 वर्ष के बीच की सोच

इस उम्र के बच्‍चे इस भौतिक जगत की वे चीजें जो उन बच्‍चों से relevant होती है,  की डिमांड तो करने लगते है।   आजकल के बच्‍चे तो मोबाइल, कार और luxurious item की डिमांड भी करने लगते है । चूंकि दौर ही कुछ ऐसा चल रहा है कि बच्‍चों का जन्‍म ही इलेक्‍ट्रॉनिकी के युग में हुआ । और डिजिटल इंडिया में ही हो रहा है । अगर हम आज से 20-25 वर्षों पहले की बात करें । तो भी बच्‍चों के मस्तिष्‍क का विकास समझ में आता था ।

Bachpan ki sunhari yaadein – उस समय के बच्‍चे गिल्‍ली डण्‍डा, कंचा खेलना, लंगड़ी घोड़ी का खेल खेलना ।

रेत में तरह-तरह के डिजाइन के मकान या बिल्‍डिंग बनाना। कीचड़, मट्टी में खेलना, डबरे या छोटे तालाबों के किनारे मेंढ़क या मछली पकड़ने के लिये कीचड़ में लकड़ी  घोपना। पंछियों के घोसले खेतो से ढूंढ़-ढूंढकर लाते । जिसमें गलगल और कौओं के घोसले तक ढूंढ़कर लाया करते थे । कुछ बच्‍चे खेतो एवं पानी के डबरे के किनारे केकड़ें पकड़ने में भी आनंद लिया करते थे । बच्‍चों के यह खेल उनकी बढ़ती हुई उम्र के साथ उनकी शरीर और बुद्धि के विकास का परिचायक होती है ।

 गरीब और मध्‍यम वर्गीय परिवार के बच्‍चों की सोच 

यहां पर उन बड़े आदमीयों के बच्‍चों को बिल्‍कुल भी इशारा नहीं कर रहा है जो बंदिश में रहते है । उनकी कुछ खेलों की क्रियायें कम होती है । पॉज ऐरिया एवं कॉलोनियों में रहने वाले अधिकारियों के बच्‍चों की बात भी नहीं की जा रही है ।

Bachpan ki sunhari yaadein -अपनी उम्र से थोड़े बड़ी उम्र के दोस्‍तों के साथ चलते । वे आम के पेड़ों पर चढ़कर या दोस्‍तों को चढ़वाकर घोसलों को उतरवा लिया करते थे ।और उसमें तरह-तरह के वे समान जो पछी अपनी चोंच में दबाकर लाकर घोंसले में एकत्रित करते थे । वे बच्‍चे उन्‍हें पाकर बड़े खुश होते थे ।

कभी वे बच्‍चे उसमें तार तो कभी धागा यहां तक की छोटी घड़ी तक निकल जाया करती थी । जब लोग नदियों के और फिल्टर के किनारे या धोबी घाट के किनारे अपने काम करते। उस समय कपड़े और  घड़ी, रूमाल, गमछा, बटुआ  साइड में रखकर नहाते । उस समय  पंछी अपनी चोंच में दबाकर उन समानों में से कुछ अपने  घोसलों में रख दिया करते थे । सामान्‍य परिवार एवं मिडिल क्‍लास फैमिली के वे बच्‍चे जो अपने साथ गरीब घर के बच्‍चों को लेकर भी चलते। उनकी दोस्‍ती में यह सब । चीजें सीखते थे ।

 कैसे मालूम होता था ?

प्रश्‍न यह उठता है कि उन्‍हें सब कैसे मालूम होता था ? तो इसका उत्तर भी बहुत सरल एवं स्‍पष्‍ट है ।बच्‍चे फल तोड़ने के लिये पेड़ पर चढ़ा करते थे । और जब डगानें और टहनी में उन घोसलों को फंसा हुआ समझते तो उसे निकालने की कोशिश करते । कई कारणों में से दो या तीन कारण बहुत स्‍पष्‍ट हो जाते थे । एक तो पेड़ के शीर्ष तक चढ़ने में घोंसला बीच में आता था ।

दूसरा उन्‍हें अनुभव हो चुकने के बाद यह लगता था कि इसमें कहीं कुछ निकलेगा । तीसरा उनकी मानसिकता वहीं नहीं थम पाती थी बल्कि विकसित होती रहती थी ।  कहीं कोई ऐसी कीमती वस्‍तु मिल जाए जिससे  उस वस्‍तु के माध्‍यम से अपनी हर इच्‍छा पूरी कर सकते हैं । 20-25 सालों पहले पैसा भी लोगों के पास बहुत कम हुआ करता था । स्‍वाभाविक है बच्‍चों के माता-पिता भी बच्‍चों को वो समस्‍त चीजें नहीं दे पाते थे । जो उनका अपना शौक होता था । बामुश्‍किल रोटी, कपड़ा, रहने को और स्‍कूल की पढ़ाई कॉपी-किताब कर पाते थे । सभी के साथ ऐसा होता था ।

180 से 200 रुपये गेहुं की कीमत

एक उदाहरण से समझें तो 1990-92 के उच्‍च श्रेणीं शिक्षक का वेतन मुश्‍किल से 2500 /- से लेकर 3000/- रहा होगा । तो फिर निम्‍न श्रेणीं शिक्षक और वे लोग जिनके घर में ना नौकरी ना कोई व्‍यापार ना कास्‍तकारी थी । कैसे करते रहे होंगे वे लोग अपना काम ? कास्‍तकारी भी थी तो कोई 180 से 200 रूपये अधिकतम  गेहूं की कीमत प्रति क्‍विंटल हुआ करती थी । दो रूपये से तीन रूपये किलो अच्‍छा वाला गुड़ मिल जाया करता था ।

सोने चांदी के भाव भी बहुत कम हुआ करते थे । माता-पिता हों या हम में से कोई भी अविभावक । उस समय जब इतना ज्‍यादा डिजिटल डेवलपमेंट भी नहीं हुआ था । बच्‍चों की कौन सी इच्‍छा कैसे पूरी कर देते । परिस्थिति विपरीत थी, यह दूसरी बात थी । बच्‍चों के हर मूवमेंट्स पर ध्‍यान रखे ,इसी तरह उन‍के जीवन बनाने मेंं अपनी भूमिका निभाएँँ।

1980-85 में 100 में से एकात घर में T V का होना

मुश्‍किल से 80-85 से 90 के दशक में पचास से सौ घरों के बीच में एकाध के यहां टी वी था । वह भी black and white हुआ करता था । उस समय का बड़ा आदमी उसे ही माना जाता था । पूरे मोहल्‍ले में शायद ही किसी के यहां टेलीफोन रहता था । उसे भी लोग अचरज भरी निगाहों से देखते थे । बच्‍चे तो यहां तक अपने दिमाग को अपने बड़ों की संगति से सीखकर, विकसित करने लगे थे । कहीं कोई बात हो जाए तो पुलिस को फोन करके बुला लेंगे, वे लोग क्‍योंकि उनके घर में टेलीफोन है ।

कैसे इच्‍छा करते ? हुए बच्‍चे जो उस दौर में, 2020-21 की facility ही नहीं रहा करती थी । फिर भी बच्‍चे इशारों में कहते- मेरे को वो चाहिए, आप यहां पर एक जनरल स्‍टोर में खड़े हैं । वो बच्‍चा आप से एक बॉल प्‍लास्टिक की मांग रहा है । उस बॉल का नाम शायद वह नहीं ले पा रहा है, या नाम ले लेगा । फर्क दोनों के बीच में ज्‍यादा नहीं है । फर्क सिर्फ यही है कि आप उसे वह सामान दिला पाए तो बच्‍चा अलग तरीके का बनता गया । यदि  उसे डांट कर या समझाकर मना कर दिया तो बच्‍चा उस  सामान के लिये तरसता रह गया  था । समय का कुछ दौर ही ऐसा ।

आज हमने (Bachpan ki sunhari yaadein) बचपन की कुछ सुनहरी यादों के बारें में बात की इसके साथ ही कुछ ज्ञानवर्धक बातें भी साझा की आशा करते हैं आपको हमारी कोशिश पसंद आयी होगी ।