विचारों की चिंगारी से सफलता का प्रशस्‍त रास्‍ता

विचारों की चिंगारी से सफलता का प्रशस्‍त रास्‍ता

हम किसी ना किसी विषय में अक्‍सर सोचते रहते हैं, यह सोच ही विचारों की चिंगारी उत्‍पन्‍न करती है। उस विशेष समय में,  जिसमें विचारों का वातावरण होता है, हम अपनी मौजूदगी वहां महसूस करते हैं । अर्थात् हम उस वातावरण में ही अपने स्‍वयं का निरीक्षण कर परीक्षण कर पाते हैं । व्‍यक्ति के विचार उसी के अनुसार उसके सोच के चलते उत्‍पन्‍न होते रहते हैं । कभी-कभी वह उस विचार के माध्‍यम से बहुत कुछ योजनाएं बना लेता है । उस योजना के अनुसार अपनी काल्‍पनिक शक्ति का प्रयोग स्‍वत: ही उस व्‍यक्ति के द्वारा होता है । इस काल्‍पनिक शक्ति की वजह से ही वह अपने आप में अपने स्‍वाभिमान एवं सम्‍मान को भी बना हुआ महसूस करता है । फिर उसके स्‍वाभिमान एवं सम्‍मान को वह व्‍यक्ति शिखर के शीर्षथम् स्थिति तक महसूस करते चले जाता है ।

विचारों की अनिश्‍चितता उसे, उसके स्‍वयं से ही प्राय: बहुत दूर ले जा लेती है । और फिर वह सिर्फ  उसके एहसास एवं सोच के दायरे में ही रह जाता है । कुछ ही व्यक्ति हो पाते हैं जो अपनी काल्‍पनिक विचार धाराओं से बाहर निकल कर सच का सामना कर पाते हैं । जब व्यक्ति किसी योजना या तरीके जिसे वह स्‍वत: अर्जित ज्ञान द्वारा प्राप्‍त करता है । तब उस तरीके या योजना का उपयोग वह अपने जीवन में अपनी तरक्‍की, समृद्धि एवं आगे बढ़ने के लिए करता  है । व्‍यक्ति वास्‍तव में समूचे क्षेत्र से सदैव कुछ ना कुछ ढूंढने की चेष्‍टा में लगे रहता है ।  कभी वह ऐसा  ज्ञान प्राप्‍त करना चाहता है जिससे इस संसार में उसे हर कार्य सरलता से नसीब हो जाए ।   यही नया युग निर्माण है ।

ज्ञान का सूत्रपात- हमारी सोच एवं वातावरण

हमारे जीवन में हमारा बहुत ही ज्‍यादा आश्‍चर्यजनक जिंदगी से सामना होता है ।  हमें उसका कभी पता ही नहीं चल पाता है । पहला, वह यह कि जब हमारे विचार हमारे ज्ञान और सोच के दायरे में ही निहित रहते हैं, उनमें बढ़ोत्‍तरी ही नहीं हो पाती है । दूसरा, यह कि सभी में कुछ ना कुछ कमी अवश्‍य होती है तो फिर विचारों में भी ज्ञान के अभाव में अपूर्णता निश्‍चित ही होती होगी । व्‍यक्ति अपने विचारों को, अपनी सोच एवं वातावरण के अनुसार ही दूसरों के विचारों से जोड़ देता है । तभी उसे ज्‍यादा कर कष्‍ट शुरू हो जाते है । यदि विचार सकारात्‍मकता से जुड़ गये तो बहुत अच्‍छा है अन्‍यथा दु:ख निश्‍चित है । हमारा अच्‍छा वातावरण एवं सोच, क्‍या कोई अन्‍य व्‍यक्ति तय करता है ?  हम अच्‍छे को अच्‍छा एवं बुरे माहौल को भी मजबूरी में अच्‍छा कह देते हैं ।

प्राय: यह देखा जाता है कि शिक्षा एवं ज्ञान से मनुष्‍य के जीवन जीने का स्‍तर बहुत उच्‍चतम प्रकार का होता है । परंतु हर जगह कोई भी बात 100% खरी नहीं उतरती है । यह भी परिस्थितिवश निश्‍चित है । प्राय: 90% से 97% तक व्‍यक्ति एकदम सामान्‍य जीवन जीते हैं । उनका रहन-सहन, आचार विचार, वातावरण में व्‍यवहार और माहौल में जीना जीवन में बेशुमार हो जाता है । उनकी आदत बन जाती है । तो फिर ज्ञान एवं हमारी सोच का स्‍तर भी हमें संतुलित करके चलना पड़ता है । यह भी सत्‍य है कि बहुत सी बातें और विचार हम ना तो किसी पर थोंपते हैं ना स्‍वीकार करते है । बावजूद भी इसके जिंदगी में सामंजस्‍य बनाकर चलना पड़ता है । ऐसा भी देखा जाता है कि गलत सोच  एवं वातावरण में भी ज्ञान का सही सूत्र उत्‍पन्‍न करने वाले मौजूद होते हैं ।

बेवजह अच्‍छा माहौल बनाने से नुकसान

यदि किसी विद्वान, सज्‍जन या मनुष्‍य द्वारा बुरे माहौल को अच्‍छा बनाने की कोशिश की जाती है । तो उस स्थिति में कुछ व्‍यक्ति उन वीरों को बर्दाश्‍त जान बूझकर नहीं कर पाते है । आज के समाज में, परिवार में अपनी जीवकोपार्जन के लिए हर व्‍यक्ति कुछ न कुछ अपने अनुसार करता है ।  यहीं पर वह अच्‍छा माहौल बनाने में अड़चने आती हैं । किसी के काम से तो किसी के नाम से अपनी-अपनी हैसीयत के अनुसार व्‍यक्ति सामंजस्‍य नहीं बना पाता ।

एक कड़वा किंतु अटल सत्‍य है । गलत जगह में सही बात या सही जगह में गलत बात बर्दाश्‍त नहीं की जाती है । कुछ लोग मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग की बात के कारण बनते काम में बाधा बनते हैं । कही-कहीं पर जिसकी लाठी उसकी भैंस की वजह से सामान्‍यजन परेशान रहते हैं । अच्‍छा माहौल सभी जगह होना चाहिए । सभी लोग अच्‍छा माहौल चाहते भी हैं । परंतु जब व्‍यक्ति के निज स्‍वार्थ में उसे नुकसान समझ में आता है तो वे अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं । अच्‍छे माहौल बनाने में विरोधी तत्‍व बन जाते हैं ।

जब आपसी मतभेद होता हो तो अच्‍छे की गुंजाइश बनायी जा सकती है । किंतु आपसी मन भेद हो जाने पर कैसे अच्‍छा माहौल बनाया जा सकता है । कहीं एक व्‍यक्ति अपने बाजू में किसी अच्‍छे को अच्‍छी निगाहों से अंत: मन से नहीं देख पाता है । तो कहीं कोई पड़ोसी खुश क्‍यों है ? की वजह से परेशान रहता है । किन्‍ही भी कारणों से व्‍यक्ति के तौर तरीके सिर्फ यही साबित करते है कि वह सामंजस्‍य बनाये रहता है । यह विकृति कुछ समाज में, कुछ स्‍थान पर देखने को बहुत कम मात्रा में भी मिली है । कारण – आपसी भाईचारा ।

            कथनी और करनी में फर्क

प्राय: लोग जो कहते है वह पूरी ताकत से स्‍वयं के लिये तो करने के लिए तो तत्‍पर रहते हैं । वे दूसरों को भी उस कार्य को, उनके वादों को करवाने के लिए याद दिलाते हैं । व्‍यक्ति के निजी स्‍वार्थ के वशीभूत उसकी जिम्‍मेदारियाँ उससे यह सब करवाती है । किंतु यदि यही व्‍यक्ति दूसरों को कुछ काम करने का वचन देता है । वहां उस कार्य में उसका निज स्‍वार्थ, साथ ना दे, तो उसकी करनी में फर्क निश्‍चित ही आ जाता है । व्‍यक्ति में यह स्‍वार्थ एवं नि:स्‍वार्थ की भावना का जन्‍म उसके अपने लाभ एवं हानि की वजह से होता है । यदि व्‍यक्ति को लाभ दिखे तो उसकी कथनी करनी सामंजस्‍य बनाये रहती है किंतु यदि उसे हानि दिखे तो फर्क ।

विचारों की चिंगारी  हमारे ज्ञान के अनुसार या ज्ञान जो विचारों ने निर्मित किया है, आपस में असंतुलन बना लेते है । उन सभी परिस्थितियों में, विचारों के उस गहरे समुंदर में जहां हमारे विचार तैरने के लिए सदैव आतुर रहते हैं । वे तैरते हुए विचार वैसे ही क्रिया भी करवाते हैं । जिससे ही स्‍वार्थ, लाभ और नुकसान का ज्ञान व विचार  के जन्‍म होते हैं । जहां से मनुष्‍य में अहंकार जन्म लेता है । फिर उस ज्ञान और विचार के बीच में जो संगतता निर्मित होती है ।

उस संगतता के चलते ही हम अपना निर्माण करते हैं । उस संगतता का प्रभाव हमारी क्रिया-कलापों में भी होता है । व्‍यक्ति की जीवन शैली में  इसका बहुत ज्‍यादा प्रभाव महसूस किया जा सकता है । कभी-कभी तो यहां तक होता है कि व्‍यक्ति की क्रियाकलापों का असर व्‍यक्ति को स्‍वयं ही समझ में नहीं आ पाता । इस प्रभाव का अवलोकन अन्‍य लोगों के द्वारा भी किया जाता है ।

व्‍यक्ति के व्‍यक्तित्‍व की जाँच (पहचान)

व्‍यक्ति अपने जीवन  में बहुत ज्‍यादा संभलकर अपनी अदाओं को परस्‍पर, परिवार दोस्‍तों और समाज में प्रसारित करता है । सामान्‍य आदमी के व्‍यक्तित्‍व में भी इनकी झलक देखने को मिलती है ।  व्‍यक्तित्‍व की पहचान, उसकी बोली, वाणी, चलने का ढ़ंग, नजरों का प्रयोग, शारीरिक हाव-भाव… इत्‍यादि द्वारा बाहरी रूप से की जाती है । एवं आंतरिकत: उसकी सोच, नजरिया, नजरों का खेल, अपने हाव-भाव, स्‍वा‍भाविकत: उसके ढंग …. इत्‍यादि द्वारा पहचान की जा सकती है ।   व्‍यक्ति कैसा बैठता है, कैसा खाता है, कैसा पहनता है, कैसा चलता है, कितने तरह से बातों  के तरीकोंं को अपनाता है ।

सभी को बाहरी आवरण में उसे सामंजस्‍य बनाकर चलना होता है । अन्‍यथा बाहरी दुनिया के लोग उसकी कमियाँ उसे ही याद दिलाने लगते है । लोग उसकी समय बेसमय आलोचनाएं करने के सदैव आतुर रहते हैं । यदि व्‍यक्ति को ऐसा लगने लगता है कि उसे कोई से किसी प्रकार का कोई मतलब नहीं है । तब वही व्‍यक्ति अन्‍य लोगों से भले ही अलग हो चुका, स्‍वयं को मानता है । परंतु अन्‍य लोग उसे सदैव अपनी निगाहों में लाने की, उसकी क्रियाकलापों को जानने की कोशिश करते हैं । ऐसा कहा जाता है कि किसी को किसी से कोई मतलब नहीं होता है किंतु वा‍स्‍तविकता स्‍वाभाविकत: भिन्‍न प्रकार की समाज में देखने को मिलती है ।

जिस प्रकार फूलों की खुशबू बगिया के बाहर अन्‍य लोगों तक पहुंच जाती है । अन्‍य लोगों को ना तो बगीचा और ना ही फूल दिखता है । प्‍यासे की प्‍यास के चलते वह पानी तक पहुंचने का पूरा प्रयास करता है । वैसे ही आपके व्‍यक्तित्‍व की बात भी आपके विचारों की चिंगारी द्वारा समाज में निश्चित ही होती है । जिस प्रकार आपके मन में किसी के प्रति विचार उत्‍पन्‍न होते है । ये स्‍वाभाविक है ।

अच्‍छा माहौल बनाने का प्रयास

जब व्‍यक्ति की क्रियाएं उसके अपने ज्ञान एवं ज्ञान से उत्‍पन्‍न विचार की शैली के अनुसार होती है । उस समय व्‍यक्ति के जीवन शैली में इनका आचरण नृत्य करता प्रतीत होता है । मानों जंगल के घनेपन के कारण और बरसात व ठंड की हल्‍की बौछार तथा शीतित प्रकृति के अहसास में मोरनी का नाचना होता है । उसी तरह हमारे अपने व्‍यक्तित्‍व की शोभा हमारे विचारों की चिंगारी से अलंकृत होती है । जब जंगल में मोर को नाचते देखने का मन, हमारी खुशियों को बयां करता है । इसी प्रकार यदि हम अपने व्‍यक्तित्‍व की रक्षा अपनी सकारात्‍मक नजरिये की ढाल से करते चलते हैं ।

व्‍यक्ति जब अपनी क्रियाओं को अपनी ईमानदारी, आचरण, चरित्र, मर्यादा एवं संस्‍कृति के असूलों से क्रियान्वित करते हैं ।  ये क्रियान्‍वयन प्राकृतिक एवं सकारात्‍क होना चाहिए । ऐसे लोग जिनमें कोई दाग होता ही नहीं है, मुश्‍किल से महसूस किये जाते हैं । जब समाज के लोग अच्‍छा माहौल, अच्‍छा वातावरण चाहते हैं । सभी व्‍यक्तियों को इस अच्‍छा वातावरण को निर्मित करने में स्‍वयं को भी एक इकाई के रूप में स्‍थापित करना चाहिए ।

कभी-कभी किन्‍ही विशेष परिस्थितियों में भी काम करने वाला व्‍यक्ति भी अपने काम नहीं कर पाता है ।  वह भी समाज में व्‍याप्त नकारात्‍मकताओं के वातावरण के चलते काम करने से विचलित हो जाता है । फिर लोगों के ताने-बाने सुनकर एवं  आगे बढ़कर बिना किसी योग्‍यता के सलाह देने वालों से विचलित हो जाता है । व्‍यक्ति को काम करने की प्रेरणा किसी को देखकर या इतिहास को जानने से भी मिलती है । जैसे महात्‍मा गांधी जी ने जो भी किया वह समस्‍त कार्य राष्‍ट्र के नाम समर्पित हो गये । अब्‍दुल कलाम साहब से भी बहुत बड़ी प्रेरणा मिलती है ।  प्रत्‍येक को अपने काम करते रहतना चाहिए यही सत्य है ।

 

              सारांश

इस बात को सभी जानते है कि शिक्षक के द्वारा विद्यार्थी में बहुत ज्‍यादा परिवर्तन होता है । घर के अच्‍छे वातावरण एवं माहौल से बच्‍चे में बहुत अच्‍छे संस्‍कार उत्‍पन्‍न होते हैं । अच्‍छे माहौल एवं अच्‍छे वातावरण में अच्‍छे दोस्‍त और अच्‍छे साथी प्राप्‍त होते है । कभी-कभी अच्‍छे दोस्‍तों, शिक्षित पड़ोसियों एवं पढ़े-लिखे समाज से भी अच्‍छा वातावरण बनता है । वैसे तो अच्‍छे साथी हो या माहौल अच्‍छा बनाने की बात हो, यह सब हमारे अपने विचारों की ही देन होती है ।

अब पुन: विचारों को यदि अच्‍छा बनाना हो तो हमें चिंतन और मंथन करके अपनी बहुत बढि़या सोच करनी होती है । ये सोच, विचार कामयाबी की मंजिल की ओर समाज को अग्रसित करते हैं । इसमें सांस लेने वाले सभी लोग सुख एवं शांति का अनुभव करते हैं । सभी सुखी एवं समृद्धिशाली होते चले जाते हैं । सफलता के पीछे ये बहुत बड़ा हिस्‍सा कर्म का होता है किन्‍तु इस कर्म को विचार संभाले रहते हैं । अपनी सोच की दिशा गलत हो जाए और इसका दायरा बहुत बढ़ जाये तो असफलता नजर आती है ।

सोच यदि किसी भय के साये में निर्मित होती हो तो व्‍यक्ति एक दिन कुंठित विचारों को प्रस्‍तुत करता है । सफलता के विचारों की चिंगारी उसके आत्‍म परीक्षण एवं अनुभव से व्‍यवहारिक रूप में अच्‍छी एवं बड़ी प्राप्‍त होती है । इस चिंगारी, जो कि विचारों का समुंदर होता है, में से प्राप्‍त की जाती है । तभी दिशायुक्‍त, शर्तयुक्‍त और भय मुक्‍त सफलता निश्‍चित रूप में प्राप्‍त होती है