Guru Purnima ke Pavan parva ka mahatva in hindi

Guru Purnima ka mahatva  मानवता के ज्ञान के लिए बढ़ना क्‍या वास्‍तव में सार्थक है?

इस प्रश्‍न का एक सटीक उत्‍तर ढूँढ पाना संभव ही नहीं हैं।
जिस प्रकार भक्ति से भगवान या भगवान से भक्ति के विषय में Guru Purnima ka mahatva  सभी लोगो के विचार, मत, तर्क अलग-अलग समझाता है । उसी तरह से किसी के तर्क शिक्षा से ज्ञान की ओर या ज्ञान से शिक्षा की ओर हो सकते है।
अपने विचार हम Guru Purnima ka mahatva  का उपयोग करके   किसी से साझा  कर सकते हैं, उसे अपनी सोच के दायरे में ले जा सकते हैं किन्‍तु उसे अपने विचार थौंप नहीं सकते।
एक बात तो यह होती है कि उसे, जिसे आप समझाना चाहते हो, उसका विषय क्‍या है? उसका भाव क्‍या है?
उसका तर्क और आपके तर्क में फर्क होता ही है, विचारों में भी अन्‍तर होता है।
यही तो विडंबना है कि कोई व्‍यक्ति किसी बात को बहुत अच्‍छे से समझ सकता किंतु अन्‍य किसी को उतने ही अच्‍छे से समझा पाये, आवश्‍यक नहीं है । 
या फिर किसी को समझाने से पूर्व ही समझने वाला व्‍यक्ति ज्‍यादा अच्‍छे तहह से समझ जाता है भले ही समझाने वाले को समझाने में ही शंका थी।
ये गंभीर विषय होते हैं जिस पर कोई-कोई, किन्‍तु बहुत ज्‍यादा नहीं, महापुरूषों, ज्ञानियों वेद वेत्‍ताओं, विद्वानों ने इतना कुछ कह डाला कि उसके जवाब आज गूगल में भी सर्च करने पर उत्‍तर नहीं पाया जाता है
प्रश्‍नकर्ता की क्‍वेश्‍चन या क्‍वेरी सदैव से उत्‍पन्‍न होती चली आ रही है जो उत्तर चाहती है। उस गूगल के (क्‍वेश्‍चन हब) पेज पर एक प्रश्‍न आया, गुरू पूर्णिमा का महत्‍व ?
 दूसरा प्रश्‍न आया गुरू पूर्णिमा का गुजराती में महत्‍व?
तीसरा प्रश्‍न आया, गुरूपूर्णिमा स्‍पीच फॉर टीचर इन इंग्‍लिश?
चौथा प्रश्‍न आया हैप्‍पी गुरूपूर्णिमा कोटेशन फॉर टीचर? 
पांचवा प्रश्‍न आया गुरूपूर्णिमा कोटेशन इन इंग्‍लिश फॉर पेरेंट्स …. इस तरह क्‍वेरी खत्‍म नहीं होती।
सभी के जवाब पढ़ते चलिए नीचे मिलते जाएंगे। जैसे प्रथम प्रश्‍न का जवाब

    गुरू पूर्णिमा की महत्‍ता 

   व्‍यास पूर्णिमा भी गुरू पूर्णिमा का ही पर्याय है, समझना चाहिए 
इसे पूरे भारत वर्ष में बहुत उत्‍साह और हर्षोत्‍सव के साथ मनाया जाता है बल्कि दुनिया में बहुत जगह इस परंपरा को आज भी अपनाया जाता है, जब तो यहां के गुरूओं का विदेशों में भी अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाते हुए हम सब देख पाते है।
यदि इससे लाभ ना होता, किसी भी प्रकार से चाहे भाव से, चाहे आत्‍मा से, चाहे आस्‍था से, चाहे श्रद्धा से, चाहे विश्‍वास से, चाहे तर्क से, चाहे ज्ञान से, चाहे पीढि़यों से चली आ रही परम्‍परा से , तो फिर गुरू पूर्णिमा का जो महान और बड़ा पर्व मनाया जाता है, उस पर अंकुश लग जाता !
  इतिहास में झांककर देखें तो भी बहुत संक्षिप्‍त में हम समझ सकते हैं कि गुरूशिष्‍य परंपरा का दर्शन, इस महोत्‍सव का महत्‍व शिष्‍य अपने गुरू के आशीर्वाद का महत्‍व न कह पाता।
 यह गुरूपूर्णिमा एक बहुत ज्‍यादा आदर्शो पर्व माना जाता है।
इस दिन गुरू पूजा का विधान है। गुरू परंपरा आप श्री रामायण में भी भगवान श्री राम जिनकी शिक्षा, दीक्षा, गुरू वशिष्‍ठ के सानिध्‍य में हुई।
इसी प्रकार अन्‍य समस्‍त ग्रंथों में भी प्रमाण स्‍पष्‍ट मि‍लते हैं ।
वास्‍तव में वेदव्‍यास जी की प्रथम पूजा की जाती है, क्‍योंकि चारों वेदों के रचना महर्षि वेदव्‍यास जी द्वारा की गयी थी ।
चारों वेदों – ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद के ये रचियता हैं।

 हम सभी इस बात को बचपन से पढ़ते और समझते आ रहे हैं हमारे अध्‍यापक जी ने भी हमें यह पाठ पढ़ाया है जिसमें गुरूओं का महत्‍व समझाने हेतु एक दोहा कहा गया है-

   गुरू गोविंद दोऊ खड़ें, काके लागूं पाएं।

     बलिहारि गुरू आपने, गोविंद दियो बताए।।

अर्थात् संत कबीर दास जी के अनुसार यदि गुरू, जिससे आपके समस्‍त प्रश्‍नों का हल मिल जाता हो, समस्‍या परेशानियों को भी दूर करने की विधि मिल जाती है, ऐसे गुरू यदि आज हमें सद् गुरू के रूप में मिल जाएं तो हमें समझना चाहिए कि हमें साक्षात् (गोविंद) मिल गए, मानना चाहिए।
तब स्‍पष्‍ट है कि दोहे के अनुसार हमें पहले चरण वंदन एवं चरण पूजन करके साक्षात् नमन गुरू का ही पहले करना चाहिए और य‍हीं गोविंद (भगवान) का रास्‍ता स्‍वयं प्रशस्‍त कर देंगे।

गुरू विराट रूप में

 गुरू अपने ज्ञान एवं दिव्‍य स्‍वरूप या विराट रूप में प्रकट होकर या आकर अपने शिष्‍य को स्‍वयं भगवन का दर्शन करा देते हैं या सामान्‍य मनुष्‍य को भी इस बात का भी एहसास करवा देते है कि भगवन किसी न किसी रूप में उस भक्‍त की, श्रद्धालु की या समान्‍य जन की रक्षा करने हेतु आते रहते है एवं उनकी मदद, किसी भी रूप में, चाहें तो कोई शक्ति है, के रूप में ही सही, उनके भक्‍त को स्‍वीकार करनी ही पड़ती है।
 माता-पिता केवल शरीर जन्‍म देते हैं। शरीर का रक्षण और पोषण करते है पर गुरू द्वारा ही आत्‍मा का विकास और उसका कल्‍याण फिर बंधन मुक्ति का जो महान कार्य सम्‍पन्‍न किया जाता है। इसकी महत्ता शरीर पोषण की अपेक्षा अनगिनत गुनी ज्‍यादा होती है ।
जिस प्रकार नेत्रों के बिना सारा संसार, वैभव अदृश्‍य रहता है। जैसे प्रकाश के बिना सारे जहां में अंधकार रहता है। ठीक उसी तरह गुरू, सद् गुरू के बिना भी सभी धर्मशास्‍त्र, कर्म कांड, वृत्त, पर्वों के होते हुए भी अंधकार छाया रहता है।
 वेद और शास्‍त्रों के अनुसार गुरू को ब्रह्मा भी कहा गया है। गुरू अपने शिष्‍यों को शिक्षा देकर, एक रास्‍ता बनाकर उस पर चलने हेतु एक नया जन्‍म देते हैं।
वह अपने सभी शिष्‍यों की गलतियों को सुधारकर, क्षमा कर उन्‍हें सदैव सकारात्‍मक वातावरण एवं माहौल देते है।
 वैसे तो हर क्षण और हर पल हमें जिस किसी से भी, जो भी सीखने को मिलता है, वह हमारा गुरू होता है । तब शिष्‍य का भी अपना नैतिक कर्त्तव्‍य बनता है कि उस गुरू का नमन एवं सम्‍मान सदैव करना चाहिए ।
 इस वजह से हिंदुस्‍तान धर्म में गुरू की महिमा का बहुत ज्‍यादा महत्‍व दिया गया है । पूरे भारत वर्ष में अन्‍य प्रचलित त्‍यौहारों की अपेक्षा इस पावन पर्व एवं महोत्‍सव ‘गुरूपूर्णिमा’ का महत्‍व ज्‍यादा माना गया है ।
बल्कि इस महोत्‍सव में गुरू शिष्‍य मिलन की विधि में शिष्‍य को ऐसा देखा गया है कि वह गुरू को नारियल, गमछा, मिठाई, दक्षिणा… किसी भी प्रकार का निमित्त निभाकर उनसे अपने जीवन में सफलता के लिए आशीर्वाद मांगता है एवं गुरू भी शिष्‍य की भेंट स्‍वीकार करके उसे आशीर्वाद देते है।

गुरू से नव निर्मित ऊर्जा

यहां तक की सद् गुरू अपने गुरू महोत्‍सव का पावन पर्व मनाने का श्रेय शिष्‍यों को ही देते हैं । और कहते हैं कि उनका उद्देश्‍य शिष्‍यों से कुछ भी भेंट लेने का नहीं रहता, वे तो सिर्फ शिष्‍यों को दर्शन और आशीर्वाद देकर उनके जीवन में हर खुशियों को देना चाहते हैं जिसके लिए वे स्‍वयं यज्ञ, हवन, व्रत, तप, जप एवं चतुर्मास जो कि श्रावण मास में होता है, अपने संकल्‍प के साथ करते है और हर इच्‍छा सिर्फ अपने भक्‍तगणों एवं शिष्‍यों की भलाई के लिए, नव निर्मित ऊर्जा के लिए, सकारात्‍मकता के लिए, यश कीर्ति एवं समृद्धि के लिए करते रहते है और शिष्‍य सफल होते भी नजर आते है।
क्‍योंकि उनका विश्‍वास अटूट भक्ति गुरूनिष्‍ठा स्‍वयं की भी होती है तो उन्‍हें वह सबकुछ मिलता भी रहता है जो वे चाहते है बल्कि ज्‍यादा भी शिष्‍यों को पाते हुए देखा गया है।
 किसी भी व्‍यक्ति श्रद्धालु, भक्‍तगणों को सत्मार्ग एवं सन्‍मार्ग पर चलने की प्रेरणा व्रतों, पर्वों एवं धार्मिक व राष्‍ट्रीय त्‍यौहारों से मिलती है किन्‍तु इन्‍हें इनसे लाभ तब ही हो सकता है जब इन व्रत, पर्व एवं त्‍यौहारों की उपयोगिता एवं आवश्‍यकता पूरे जीवन में गुरूओं, सद् गुरूओं द्वारा ही बतायी जा सकती है। इन गुरूओं के अभाव में समाज में जनता, भक्‍त, श्रद्धालुगण लाभान्वित हो ही नहीं सकते ।
जिस प्रकार श्रीराम कृष्‍ण परमहंस जी ने विवेकानंद जी के प्रश्‍नों के उत्तर देकर उन्‍हें संतुष्‍ट एवं शांत किया था और फिर नरेन्‍द्र से बने विवेकानन्‍द जी पूरी दुनिया में धर्म के प्रचारक, उपदेशक महान ऊर्जावान, प्रकाशवान होकर उदाहरण बने ।
                              श्री रामचरित्रमानस में गोस्‍वामी तुलसीदास जी ने बहुत सुंदर और सरल व सहज लिखा है –

  गुरू बिन भव निधि तरई न कोई ।

       जो विरंचि शंकरसम होई ।।

                                        सद् गुरू के बिना इस सांसारिक जीवन-मृत्‍यु से, भव सागर से कोई नहीं तर सकता । इस जगत में इ‍तनी व्‍याधियां, विकृति ईर्ष्‍या व द्वेष हैं, इतने अवगुण हैं कि कोई भी इन्‍हें गिन ही नहीं सकता । इनसे बचने, निपटने या मुकाबला करने के लिए गुरू, सद् गुरू ही उनके अनुयायियों को, शिष्‍यों को मार्ग बताकर उनका रास्‍ता प्रशस्‍त करते हैं ।
                                      इतिहास में गुरू के कई ज्‍वलंत उदाहरण है । गुरू भक्‍त एकलव्‍य ने गुरू की प्रतिमा बनाकर उनके सामने अपनी आस्‍था एवं श्रद्धा के बल पर संसार में सर्वश्रेष्‍ठ धनुर्धर बनकर दिखाया और गौरव हासिल किया। यहां वर्तमान परिवेश में हर हतोत्‍साहित एवं हीन भावना के शिकार जो मन में अब कुछ नहीं कर पाएंगे के विचार धारण कर लेते है, को शिक्षा मिलती है कि आप जो चाहते है वो कर सकते हैं एवं मनचाही इच्‍छानुसार वस्‍तु पा सकते है । सिर्फ कर्म करते जाना चाहिए कौन क्‍या कहता है ? और फल की चिंता न करके पूरा समय जिस दिशा में भी आप प्रयत्‍न करते है, कर्म में लगा देना चाहिए। क्‍योंकि वैसे भी दूसरों की रेखा मिटाकर अपनी रेखा बड़ी या लंबी साबित नहीं कि जा सकती बल्कि अपना कर्म करके अपनी रेखा लंबी होते हुए हम स्‍वयं देख सकते है। यह सफलता अपने निजी मेहनत कर्म विवेक एवं बुद्धि के साथ पायी जाती है इसलिए सफल व्‍यक्ति भी पूर्णत: स्‍वाभिमानि होता है, सभी को मेहनत कर सफलता प्राप्‍त करने के लिए कोशिश करते रहना चाहिए, गुरूओं की वाणीं में यही आशीर्वाद सदैव से चला आ रहा है ।
                                       गुरूभक्‍त अरूणी इत्यादि बहुत से उदाहरण है । इसका महत्‍व एवं महत्ता शिष्‍य द्वारा याद रखी जाए एवं ऋषियों ने गुरूपूर्णिमा का पुनित पर्व नवनिर्मित किया जिसके कारण यह पावन पर्व, त्‍यौहार पूरे उत्‍साह पूर्वक धर्म क्षेत्र के अंतर्गत रहते हुए सभी भक्‍त शिष्‍य मनाते हैं एवं अपने जीवन को गुरू मार्गदर्शन के साथ लेकर, चलकर अपने जीवन में सफल होते है ।
                                    माता-पिता की सेवा  करना भी संतान का धर्म है साथ में सभी बड़े भाई बहनों का भी नमन कर उनको तिलक एवं उनका पूजन कर उनसे आशीर्वाद लेना भी शास्‍त्रों का विधान बताया गया है वैसे प्रथम गुरू तो मां ही होती है जहां से शिष्‍य की प्रथम पाठशाला प्रारंभ होती है ये विधान भी शास्‍त्र में बताया गया है
                                       गुरू के बारे में  वेद शास्‍त्रों में ऐसा भी मिलता है –

श्री सद् गुरू स्‍तुति 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्‍णु गुरुर्देवो महेश्‍वर: ।

गुरु: साक्षात्‍परब्रह्म तस्‍मै श्री गुरवे नम: ।।

अखण्‍डमण्‍डलाकारं व्‍याप्‍तं येन चराचरम् ।

तत्‍पदं दर्शितं येन तस्‍मै श्रीगुरवे नम: ।।

अज्ञानतिमिरान्‍धस्‍य ज्ञानांजनशलाकया ।

चक्षुरुन्‍मीलितं येन तस्‍मै श्री गुरवे नम: ।।

ध्‍यानमूलं गुरोमूर्ति पूजामूलं गुरो: पदम् ।

मन्‍त्रमूलं गुरोर्वाक्‍यं मोक्षमूलं गुरो: कृपा ।।

और यह भी हम सभी ने हनुमान चालीसा के प्रारंभ करते समय ही दोहे में पढ़ा
                 श्री गुरूचरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि ।... हनुमान चालीसा  
अर्थात् अपने गुरू के चरणों की धूल से अपने मन के दर्पण को साफ करता हूं । जीवन में यदि गुरू नहीं है तो आपको कोई आगे नहीं बढ़ा सकता है गुरू ही आपको सही रास्‍ता दिखाते है आज के समय में मेन्‍टोर, बॉस को भी गुरू माना जा सकता है । यहां तक कि हमारा एक विचार जो आइडिया या कोटेशन के रूप में हमने स्‍वीकार किया है, को भी पूर्णत: मानकर उसके अनुसार चलकर अपने जीवन को हम सफल बना सकते है उस आइकॉन या आइडिया को भी हम गुरू स्‍वरूप पदवी दे सकते है जिस प्रकार पत्‍थर में भगवान हमारी श्रद्धा हमारी आस्‍था से हम स्‍वयं ही देखने की कोशिश करते है विपरीतत: भगवान को सिर्फ एक विश्‍वास के रूप में भी ध्‍यान करते समय एक बिंदु में भी मानकर उसे गुरू स्‍वरूप पूजकर भी हमारी आस्‍था उनपर समर्पित हो जाता है और हमारे कार्य पूर्णत: सफल हो जाते है । इस तरह शिष्‍य के जीवन में जिस तरह से प्रकाश उत्‍पन्‍न होता है तभी वह गुरू पूर्णिमा का महत्‍व को समझ कर आत्‍मसात कर पाता है। 
इसके लिए सद् गुरू कहते है गुरू को तो मानते हो, गुरू की भी मानना चाहिए।

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व्‍यवहारिक शिक्षा की श्रृंखला की अगली कड़ी में …